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दे॒वेन॑ नो॒ मन॑सा देव सोम रा॒यो भा॒गꣳ स॑हसावन्न॒भि यु॑ध्य। मा त्वा त॑न॒दीशि॑षे वी॒र्य्य᳖स्यो॒भये॑भ्यः॒ प्र चि॑कित्सा॒ गवि॑ष्टौ ॥२३ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

दे॒वेन॑। नः॒। मन॑सा। दे॒व॒। सो॒म॒। रा॒यः। भा॒गम्। स॒ह॒सा॒व॒न्निति॑ सहसाऽवन्। अ॒भि। यु॒ध्य॒ ॥ मा। त्वा॒। आ। त॒न॒त्। ईशि॑षे। वी॒र्य्य᳖स्य। उ॒भये॑भ्यः। प्र। चि॒कि॒त्स॒। गवि॑ष्टा॒विति॒ गोऽइ॑ष्टौ ॥२३ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:34» मन्त्र:23


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (सहसावन्) अधिकतर सेनादि बलवाले (सोम) संपूर्ण ऐश्वर्य के प्रापक (देव) दिव्य गुणों से युक्त राजन् ! जो आप (देवेन) उत्तम गुण, कर्म, स्वभावयुक्त (मनसा) मन से (रायः) धन के (भागम्) अंश को (नः) हमारे लिये (अभि, युध्य) सब ओर से प्राप्त कीजिये, जिससे आप (वीर्य्यस्य) वीरकर्म करने को (ईशिषे) समर्थ होते हो, इससे (त्वा) आपको कोई (मा) न (आ, तनत्) दबावे सो आप (गविष्टौ) सुख विशेष की इच्छा के होते (उभयेभ्यः) दोनों इस लोक, परलोक के सुखों के लिये (प्र, चिकित्स) रोग निवारण के तुल्य विघ्ननिवृत्ति के उपाय को किया कीजिये ॥२३ ॥
भावार्थभाषाः - राजादि विद्वानों को चाहिये कि कपटादि दोषों को छोड़ शुद्धभाव से सबके लिये सुख की चाहना करके पराक्रम बढ़ावें और जिस कर्म से दुःख की निवृत्ति तथा सुख की वृद्धि इस लोक, परलोक में हो, उसके करने में निरन्तर प्रयत्न करें ॥२३ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

(देवेन) दिव्यगुणकर्मस्वभावयुक्तेन (नः) अस्मभ्यम् (मनसा) (देव) दिव्यगुणसम्पन्न (सोम) अखिलैश्वर्यप्रापक ! (रायः) धनस्य (भागम्) सेवनीयमंशम् (सहसावन्) समोऽधिकं बलं विद्यते यस्य तत्सम्बुद्धौ। अत्र प्रथमार्थे तृतीयाया अलुक्। (अभि) आभिमुख्ये (युध्य) योधय गमय। अत्र अन्तर्भावितण्यर्थः। युध्यतिर्गतिकर्मा ॥ (निघं०२.१४) (मा) निषेधे (त्वा) त्वाम् (आ) (तनत्) सङ्कुचेत्। अत्रोपसर्गाच्चादैर्घ्य इत्याधृषीयपाठात् तनुधातोः स्वगणे लेट्प्रयोगः। (ईशिषे) समर्थो भवति (वीर्य्यस्य) वीरकर्मणः। अत्र अधीगथर्दयेशां कर्मणि (अष्टा०२.३.५२) इति कर्मणि षष्ठी। (उभयेभ्यः) ऐहिकपारमार्थिकसुखेभ्यः (प्र) (चिकित्स) रोगनिवारणायेव विघ्ननिवारणोपायं कुरु। अत्र संहितायाम् [अ०६.३.११४] इति दीर्घः। (गविष्टौ) गोः स्वर्गस्य सुखविशेषस्येष्टाविच्छायां सत्याम् ॥२३ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे सहसावन्त्सोम देव राजन् ! यस्त्वं देवेन मनसा रायो भागं नोऽभियुध्य, यतस्त्वं वीर्य्यस्येशिषे त्वा कश्चिन्मा आतनत्, स त्वं गविष्टावुभयेभ्यः प्रचिकित्स ॥२३ ॥
भावार्थभाषाः - राजादिविद्वद्भिः कपटादिदोषान् विहाय शुद्धेन भावेन सर्वेभ्यः सुखमभिलष्य वीर्य्यं वर्द्धनीयम्, येन दुःखनिवृत्तिः सुखवृद्धिरिहामुत्र च स्यात्, तत्र सततं प्रयतितव्यम् ॥२३ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - राजा वगैरे विद्वानांनी कपट इत्यादी दोष दूर करून पवित्र भावनेने सर्वांसाठी सुखाची कामना करावी, पराक्रम वाढवावा. ज्या कर्माने इहलोकात व परलोकात दुःखाची निवृत्ती व सुखाची वृद्धी होते असा प्रयत्न करावा.